आरती >> जय जगदीश हरे जय जगदीश हरेशिवानन्द सरस्वती
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पिछले लगभग पचास वर्षों से सभी के द्वारा गायी जाने वाली सर्व प्रचलित आरती
ॐ जय जगदीश हरे का एक प्रचलित संंस्करण
ॐ जय जगदीश हरे आरती ने पिछले कई वर्षों से जन-साधारण के मानस में अपना विशेष स्थान बनाया है। इस आरती को न केवल हिन्दीभाषी सप्रेम गाते हैं, बल्कि कई अहिन्दीभाषी भी इसे जानते हैं, अथवा जानना चाहते हैं। इस आरती के निम्नलिखित रूप से आप सभी परिचित हैं। भारतीय संस्कृति से अनभिज्ञ लोगों और बच्चों दोनों के लिए यह आरती संभवतः हमारी संस्कृति और आस्था पद्धति का सबसे पहला परिचय बन जाती है। यह बात विदेशों में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों के लिए अत्यंत सटीक बैठती है।ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे॥
ओम (अ+ऊ+म) अर्थात् वर्तमान, भविष्य और भूत सभी कालों में (हर समय) विद्यमान तथा समस्त जगत् को आधार देने वाले और सभी के स्वामी ईश्वर तुम ही हमारे प्राण हो, हमारी आत्मा हो। (यहाँ "हर" शब्द का अर्थ संभालना अथवा आधार देना है। प्रत्येक कल्प में सृष्टि के आरंभ से ही काल की गणना आरंभ होती है, जिसे सामान्यतः भूतकाल, वर्तमान और भविष्य के नामों से जाना जाता है। प्रकृति का आरंभ और विलय करने वाले प्रभु इन सब का आधार हैं, जिनसे सृष्टि आरंभ होती है और प्रलय के समय समस्त सृष्टि जिनमें समाहित हो जाती है।)
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे॥
तुम्हारा ध्यान मन में आते ही, तुम्हारी शक्ति से संचालित होने वाले और तुमको भजने वाले हम सभी के संकट तत्काल दूर हो जाते हैं।
जो ध्यावे फल पावे, दुख बिनसे मन का॥
ज्योंही हमारा ध्यान तुम पर केंद्रित होता है, त्योंही इस ध्यान के फलस्वरूप हमारे मन के सभी कष्ट और दुःख तत्काल मिट जाते हैं।
सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का॥
तुम्हारा अपने ध्यान में रखते हुए जब हम अपने नित्य प्रति के कार्य करते हैं, तो उनसे हमें सहज सुख और सम्पत्ति प्राप्त होते हैं। इस प्रकार के सहज जीवन से देहिक (शारीरिक रूप में) कष्ट भी सहने के योग्य हो जाते हैं।
मात पिता तुम मेरे, शरण गहूँ मैं किसकी॥
सृष्टि का आरंभ करने के कारण तुम ही हमारे माता-पिता के पूर्वज हो और इसी श्रंखला में तुम स्यवं ही भूतकाल में हमारे माता-पिता के रूप में व्यक्त हुए हो। इस दृष्टि से तुम ही हमारे माता-पिता हो। इसीलिए जिस प्रकार हम अपने माता-पिता की शरण में पहुँचकर शांति और सुख का अनुभव करते हैं, वही अनुभव हमें तुम्हारी शरण में भी मिलता है।
तुम बिन और न दूजा, आश करूँ मैं जिसकी॥
इस समस्त व्यक्त हुई सृष्टि में हर रूप में केवल आप ही आप हो। इसलिए जब दूसरा कोई है ही नहीं, इसलिए अन्य किसी की न तो मुझे किसी प्रकार की आशा है और न ही आवश्यकता।
तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतरयामी॥
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी॥
हे भगवन् तुम पूर्ण (संपूर्ण) और परम आत्मा अर्थात् परमात्मा हो। संपूर्ण आत्मा अर्थात् तुम ही सबकी आत्मा हो और इस नियम से हम सब का संचालन करने के कारण अंतरयामी (अंदर से संचालन करने वाले) हो। समस्त जगत् का आधार होने के साथ-साथ तुम इस जगत् के पार भी ब्रह्म की भाँति उपलब्ध हो। इसलिए तुमको पारब्रह्म और परम (सब सीमाओं के पार) ईश्वर कहते हैं। इस प्रकार चूँकि सर्वत्र जगत् तुमसे छोटा है अथवा आपके भीतर है, इसलिए स्वाभाविक ही आप इस जगत् के स्वामी हो।
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता॥
मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता॥
हे भगवन् इस जगत् के स्वामी होने के कारण सागर की भाँति अथाह करुणा के भाव से इस जगत् का आप पालन कर रहे हो। जब आप पूरे जगत् के स्वामी हो और मैं उसका अंश मात्र हूँ, इसलिए आप हर प्रकार से मेरे स्वामी हो, इसलिए मेरी सभी आवश्यकताओं का भरण-पोषण आपकी कृपा से ही होता है। (धन, बुद्धि अथवा राजकीय रूप से समर्थ व्यक्ति साधारणतः इनके कारण मिली हुई सामर्थ्य के अंहकार में अपने आपको हर वस्तु और व्यक्ति का स्वामी समझने लगता है। परंतु कभी-कभी उसकी सामर्थ्य काम नहीं आती और इसी जीवन में उसे अपनी क्षमताओँ की सीमाओं का ज्ञान होता है, इस स्वभाव के लोग जीवन को सेवक और स्वामी के संबंध से ही जानते और आँकते हैं, इसलिए इस परिस्थिति में अपने स्वभाववश वे अपने आपको सेवक और भगवान् को स्वामी समझते हैं। जबकि परमात्मा तो सारे जगत् को धारण किए हुए है, और उसकी सेवा करने की क्षमता साधारण मनुष्य में कहाँ से आयेगी!)
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति॥
किस विधि मिलूँ दयामय, तुमको मैं कुमति॥
मेरे नेत्रों की दृष्टि तो सीमित है, इसलिए वह अपनी सीमाओं में ही देख सकती है। इसीलिए समस्त जगत् का आधार और इस जगत् का प्राण होते हुए भी आपको मैं अपने नेत्रों से देखने में अक्षम हूँ। इसलिए हे प्रभु कृपा करके मुझे वह बुद्धि दीजिए कि मैं तुम्हें समझने का मार्ग पर चल सकूँ।
दीनबंधु दुखहर्ता, तुम रक्षक मेरे॥
करुणा हस्त बढ़ाओ, द्वार पड़ा तेरे॥
हे ईश्वर आपमें पूरा विश्व समाहित है और इसलिए आपके समक्ष मेरी क्षमताएँ और शक्तियाँ तो दीन-हीन हैं। अपनी सीमाओं में बंधे होने कारण मैं दीन और दुःखी हूँ, इसलिए मैं जानता हूँ कि तुम ही मेरी रक्षा करते हो। इस दीन-दुःखी को अपनी करुणा से आप्लावित करके मेरी रक्षा करो। मेरे मन, बुद्धि और शारीरिक शक्ति तो क्षणिक है, इसलिए उनमें अपने भ्रम-रूपी विश्वास को छोड़कर मैं वास्तविक स्वामी की शरण में आ गया हूँ।
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा॥
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥
जीवन में विविध प्रकार के विषय (कारण) मेरा ध्यान बार-बार अपनी ओर आकर्षित करके मुझे विचलित करते हैं। हे भगवन् कृपा करके हर क्षण विषय-भोगों के ध्यान के कारण होने वाले विकार से मेरी रक्षा करो। इस प्रकार विषय-भोगों में लिप्त हो जाने से अनायास होने वाले पापों से मुझे बचाओ। हे भगवन् मेरी बुद्धि आपमें श्रद्धापूर्वक और अडिग होकर स्थित रहे तथा मैं आपको ही भजता रहूँ। हे भगवन् तुम ही संतों के रूप में इस धरती पर विचरते हो, मुझे आशीर्वाद दो कि मैं संतो की सेवा आपकी भक्ति समझ कर करूँ।
तन-मन-धन सब है तेरा॥
तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा॥
हे भगवन् मेरा शरीर, मन, बुद्धि और नाना प्रयोजनों से एकत्र किये गये भौतिक सुख, ये सब भी तुम्हारे ही रूप हैं। तुम्हारे इन सभी रूपों में, मैं भी एक रूप हूँ, इसलिए मैं भी तुम्हारा ही हूँ। मुझे तुमसे भिन्न जो कुछ भी केवल अपना प्रतीत होता है, वह मेरा अज्ञान है। वास्तव में वह सब कुछ तुम ही हो, मेरा अपना कोई स्वतंत्र अस्तिस्त्व नहीं है।
ॐ जय जगदीश हरे का दूसरा संस्करण
सरल मन वाले व्यक्तियों के लिए इस आरती का पिछला संस्करण अत्यंत आनन्ददायी है, और वास्तव में मन की शांति तथा भगवान् का स्मरण करने के लिए पर्याप्त है। परंतु इस आरती का कुछ समय पारायण करने के पश्चात् कदाचित् बौद्धिक व्यक्तियों और जिज्ञासुओं का मन कुछ अधिक की आशा कर सकता है। इसलिए इसी श्रंखला में शिवानन्द सरस्वती द्वारा रचित इस आरती का दूसरा रूप यहाँ प्रस्तुत है। इस परिमार्जित रूप में जिज्ञासुओं के मनन के लिए यथोचित सामग्री है। निम्निलिखित अर्थ परंब्रह्म परमात्मा के रूप की एक झाँकी मात्र है। यदि आप निम्नलिखित आरती के प्रत्येक शब्द पर विचार करेंगे तो निश्चय की आपको परमात्मा की असीम सत्ता और प्रभुता का अनुभव होगा।ॐ जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।
मायातीत, महेश्वर मन-वच-बुद्धि परे॥ जय..
ओम (अ+ऊ+म) अर्थात् वर्तमान, भविष्य और भूत सभी कालों में (हर समय) विद्यमान तथा समस्त जगत् को आधार देने वाले और सभी के स्वामी ईश्वर तुम ही हमारे प्राण हो, हमारी आत्मा हो। (यहाँ "हर" शब्द का अर्थ संभालना अथवा आधार देना है। प्रत्येक कल्प में सृष्टि के आरंभ से ही काल की गणना आरंभ होती है, जिसे सामान्यतः भूतकाल, वर्तमान और भविष्य के नामों से जाना जाता है। प्रकृति का आरंभ और विलय करने वाले प्रभु इन सब का आधार हैं, जिनसे सृष्टि आरंभ होती है और प्रलय के समय समस्त सृष्टि जिनमें समाहित हो जाती है।) हे प्रभु जो कि माया के अतीत होते हुए उसी माया का आधार हैं, हे महेश्वर जो कि मन, वचन(वाणी) और बुद्धि से परे हैं। वे प्रभु ही हमारा आधार, हमारी आत्मा हैं।
आदि, अनादि, अगोचर, अविचल, अविनाशी।
अतुल, अनन्त, अनामय, अमित, शक्ति-राशि॥ जय..
हे प्रभु जिनका स्वयं कोई आरंभ नहीं है, वे इस जगत् का आरंभ करते हैं। हे प्रभु तुम्हें देखने के लिए इस भौतिक शरीर के नेत्र सक्षम नहीं है। इस ब्रह्मांड की हर वस्तु चलायमान है, परंतु तुम विचल होकर उसका आधार हो। प्रलय के समय यह सृष्टि तुममें लीन हो जाती है, परंतु तुम अविनाशी होकर सदैव रहते हो। जगत् की वस्तुओं की आपस में तुलना की जा सकती है, परंतु तुम इस जगत् के भी पार होने के कारण अतुलनीय हो। प्रभु तुम्हारा कोई अन्त नहीं हैं। प्रभु तुम सबको स्वास्थ्य प्रदान करने वाले, असीम और सभी शक्तियों का आधार हो।
अमल, अकल, अज, अक्षय, अव्यय, अविकारी।
सत-चित्-सुखमय, सुन्दर शिव सत्ताधारी॥ जय..
हे प्रभु तुम निर्मल होकर सदैव शुद्ध हो। तुम विभाग अथवा अंग रहित (सारे अंग तुममें समाहित हैं) हो, तुम्हारा जन्म कभी नहीं होता, न ही क्षय होता है। न ही तुम समय के साथ व्यय (लुप्त) होते हो और न ही तुममे कोई ऐसा परिवर्तन आता है जिससे विकार हो। प्रभु तुम हर काल में सुखदायी ज्ञान के रूप में व्याप्त हो। प्रभु तुम सुन्दर हो और हर समय सबका कल्याण करने वाले हो।
विधि-हरि-शंकर-गणपति-सूर्य-शक्तिरूपा।
विश्व चराचर तुम ही, तुम ही विश्वभूपा॥ जय..
हे प्रभु तुम विधाता, विष्णु, शंकर, गणपति, सूर्य और शक्ति का रूप हो। इस समस्त विश्व में चेतन और जड़ दोनों में व्याप्त होकर विश्व का शासन करते हो।
माता-पिता-पितामह-स्वामि-सुहृद्-भर्ता।
विश्वोत्पादक पालक रक्षक संहर्ता॥ जय..
हे प्रभु तुम मेरे माँ,पिता,पितामह, स्वामी, सखा और भरण-पोषण करने वाले हो। तुम ही सारे विश्व के जनक,पालक,रक्षक तथा संहारकर्ता हो।
साक्षी, शरण, सखा, प्रिय प्रियतम, पूर्ण प्रभो।
केवल-काल कलानिधि, कालातीत, विभो॥ जय..
हे प्रभु तुम सदैव मेरे साक्षी हो, मैं तुम्हारी शरण में हूँ, मेरे सखा, प्रिय और प्रियतमा हो। हे प्रभो तुम पूर्ण हो। हे प्रभु तुम एक अकेले होकर समय का आधार, सभी कलाओं, काल का आधार हो कर विभिन्न रूपों में भासित हो।
राम-कृष्ण करुणामय, प्रेमामृत-सागर।
मन-मोहन मुरलीधर नित-नव नटनागर॥ जय..
हे प्रभु तुम राम और कृष्ण की भाँति करुणामय होकर सबसे सागर की भाँति अधाह गहराइयों तक प्रेम करते हो। हे प्रभु तुम ही मोहन, मुरलीधर और नटनागर के रूप में हमारा मन मोहते हो।
सब विधि-हीन, मलिन-मति, हम अति पातकि-जन।
प्रभुपद-विमुख अभागी, कलि-कलुषित तन मन॥ जय..
हे प्रभु हम सब प्रकार से हीन, मंद-बुद्धि और नाना प्रकार के पापों से घिरे हैं। हम इस काल में मैले तन और मन को लेकर और तुम्हारे चरणों के सुख से वंचित होकर अभागों का जीवन जी रहे हैं।
आश्रय-दान दयार्णव! हम सबको दीजै।
पाप-ताप हर हरि! सब, निज-जन कर लीजै॥ जय..
हे प्रभु हमें दया करके अपनी शरण का दान दीजिए, जिससे हमारे सभी पाप, कष्ट दूर हों। हे भगवन् अपने भक्तों को अपने हाथों से सहारा दीजिए।
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लोगों की राय
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